Indian Nominated Films

Thursday, 11 October 2012

क्या ऑस्कर के लायक है बर्फी

भारत की ओर से आजतक 40 से ऊपर फिल्में ऑस्कर के लिए भेजी गई हैं. इनमें से ज़्यादातर फिल्में हिंदी में थी. प्रादेशिक सिनेमा कभी भी फिल्म फेडरेशन की पसंदीदा नहीं रही हैं. आठ बार तमिल फिल्मों को भेजा गया तो दो बार बंगाली भाषा में बनी फिल्में ऑस्कर जाने में कामयाब हुई. वहीँ मराठी, मलयालम और तेलगु फिल्म अब तक बस एक एक ही बार चुनी गई.

 

1957 में महबूब खान की 'मदर इंडिया', 1988 में मीरा नायर की 'सलाम बॉम्बे' और 2001 में आशुतोष गोवारिकर की 'लगान' को ऑस्कर पुरस्कार की आखिरी सूची में नामांकन प्राप्त करने का गौरव तो मिला लेकिन ये फिल्में भी इस पुरस्कार को जीत नहीं पाई.

 

भारत की ओर से अकादमी पुरस्कार या ऑस्कर पुरस्कारों में भेजी जाने वाली फिल्मों के इर्द-गिर्द विवादों का होना कोई नई बात नहीं है. भारत में सालाना 900 फिल्में बनाई जाती हैं इन फिल्मों का ऑस्कर जीतना तो दूर ये तो ऑस्कर के लिए नामांकित होने लायक भी नहीं होती.

पान सिंह तोमर भी बर्फी के साथ ऑस्कर के लिए भेजे जाने वाली फिल्मों की सूची में शामिल थी. 

 

मुझे लगता है कि भारतीय फिल्में ऐसे पुरस्कारों की होड़ में शामिल होने के लायक ही नहीं है.

 

सत्यजीत रे, मृणाल सेन, अडूर गोपालकृष्णन और राज कपूर जैसे भारतीय फिल्मकारों की फिल्में दुनिया भर में मशहूर हैं. इनकी फिल्मों ने कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में पुरस्कार जीते हैं. मुझे फिल्म फेडरेशन ऑफ़ इंडिया की जूरी की यही बात सबसे ज्यादा अखरती है कि वो हमेशा ही अच्छी फिल्मों को छोड़ कर औसत फिल्मों को ऑस्कर के लिए चुनते हैं.

 

उदहारण के तौर पर बिमल रॉय की 'मधुमती', सत्यजीत रे की 'महानगर', 'अपुर संसार' और 'शतरंज के खिलाड़ी', गुरु दत्त की 'साहिब बीवी और ग़ुलाम', एमएस सत्यु की 'गरम हवा', श्याम बेनेगल की 'मंथन', राकेश ओम प्रकाश मेहरा की 'रंग दे बसंती' और आमिर खान की 'तारे ज़मीन पर' जैसी बेहतरीन फिल्में भी जब इस जूरी को प्रभावित नहीं कर पाई तो इसमें दोष किसका समझा जाए, जूरी का या फिर फिल्मों का?

 

आप ये भी जान  ले कि जूरी ने पिछले सालों में किस तरह की फिल्मों को चुना है. रमेश सिप्पी की 'सागर', विधु विनोद चोपड़ा की 'परिंदा' और 'एकलव्य', मणी रतनम की 'अंजली' और 'गुरु' और दीपा मेहता की 'अर्थ' जैसी औसत फिल्मों को ऑस्कर जैसे मंच पर भारत का प्रतिनिधित्व करने भेजा गया. सबसे ज्यादा हैरानी तो मुझे तब हुई जब विक्रमादित्य मोटवाने की फिल्म 'उड़ान' को न चुनकर जूरी ने 'पीपली लाइव' को ऑस्कर की दौड़ में भेजने के लिए चुना.

मदर इंडिया', 'सलाम बॉम्बे' और 'लगान' जैसी फिल्मों का ऑस्कर की आखिरी सूची में अपनी जगह बनाना इस बात को साबित करता है कि दुनिया भारत से किस तरह की फिल्मों की उम्मीद करती है. ऐसी फिल्मों की जिनमे भारतीय संस्कृति और सभ्यता देखने को मिले. क्या बर्फी देख कर आपको कभी भी ये लगा कि इस फिल्म में भारत की संस्कृति या कला को किसी तरह से प्रदर्शित किया गया है?

 

अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ़ वासेपुर भी दौड़ में शामिल थी. 

 

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